गेहूं की खेती के लिए किस तरह की मिट्टी और जलवायु की आवश्यकता होती है? By वनिता कासनियां पंजाब !!4 से 15 डि. से. तापक्रम उत्तम रहता है। तापमान से अधिक होने पर फसल जल्दी पाक जाती है और उपज घट जाती है। पाले से फसल को बहुत नुकसान होता है। बाली लगने के समय पाला पडऩे पर बीज अंकुरण शक्ति खो देते हैं और उसका विकास रूक जाता है। पत्तियां और कल्लो की बाढ़ अधिक होती है जबकि दिन बडऩे के साथ-साथ बाली निकलना आरम्भ होता है। इसकी खेती के लिए 60-100 से. मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते हैं। पौधों की वृद्धि के लिए वातावरण में 50-60 प्रतिशत आद्रता उपयुक्त पाई गई है। ठण्डा शीतकाल तथा गर्म ग्रीष्मकाल गभूमि का चयनगेहूं सभी प्रकार की कृषि योग्य भूमियों में पैदा हो सकता है परन्तु दोमट से भारी दोमट, जलोढ़ मृदाओं में गेहूं की खेती सफलता पूर्वक की जाती है। जल निकास की सुविधा होने पर मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में भी इसकी अच्छी फसल ली जा सकती है। कपास की काली मृदा में गेहूं की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है। भूमि का पी. एच. मान 5 से 7.5 के बीच में होना फसल के लिए उपयुक्त रहता है क्योंकि अधिक क्षारीय या अम्लीय भूमि गेहूं के लिए अनुपयुक्त होती है।खेत की तैयारीअच्छे अंकुरण के लिये एक बेहतर भुरभुरी मिट्टी की आवश्यकता होती है। समय पर जुताई खेत में नमी संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। वास्तव में खेत की तैयारी करते समय हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि बोआई के समय खेत खरपतवार मुक्त हो, भूमि में पर्याप्त नमी हो तथा मिट्टी इतनी भुरभुरी हो जाये ताकि बोआई आसानी से उचित गहराई तथा समान दूरी पर की जा सके। खरीफ की फसल काटने के बाद खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल (एमबी प्लोऊ ) से करनी चाहिए जिससे खरीफ फसल के अवशेष और खरपतवार मिट्टी में दबकर सड़ जायें। इसके बाद आवश्यकतानुसार 2-3 जुताइयां देशी हल-बखर या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा देकर खेत समतल कर लेना चाहिए।उन्नत किस्मेंफसल उत्पादन में उन्नत किस्मों के बीज का महत्वपूर्ण स्थान है। गेहूं की किस्मों का चुनाव जलवायु, बोने का समय और क्षेत्र के आधार पर करना चाहिए।बीजोपचारबुआई के लिए जो बीज इस्तेमाल किया जाता है वह रोग मुक्त, प्रमाणित तथा क्षेत्र विशेष के लिए अनुशंषित उन्नत किस्म का होना चाहिए। अलावा रोगों की रोकथाम के लिए ट्राइकोडरमा की 4 ग्राम मात्रा 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के साथ प्रति किग्रा बीज की दर से बीज शोधन किया जा सकता है ।बोआई का समयगेंहूं रबी की फसल है जिसे शीतकालीन मौसम में उगाया जाता है। भारत के विभिन्न भागो में गेहूँ का जीवन काल भिन्न-भिन्न रहता है। सामान्य तौर पर गेहूं की बोआई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है तथा फसल की कटाई फरवरी से मई तक की जाती है । जिन किस्मों की अवधि 135-140 दिन है, उनको नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में व जो किस्में पकने में 120 दिन का समय लेती है, उन्हे 15-30 नवम्बर तक बोना चाहिए। गेहूं की शीघ्र बुवाई करने पर बालियां पहले निकल आती हैं तथा उत्पादन कम होता है जबकि तापक्रम पर बुवाई करने पर अंकुरण देर से होता है।प्रयोगों से यह देखा गया है कि लगभग 15 नवम्बर के आसपास गेहूं बोये जाने पर अधिकतर बौनी किस्में अधिकतम उपज देती है। अक्टूबर के उत्तराद्र्ध में बोयी गई लंबी किस्मों से भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। असिंचित अवस्था में बोने का उपयुक्त समय वर्षा ऋतु समाप्त होते ही मध्य अक्टूबर के लगभग है। अद्र्धसिंचित अवस्था मे जहां पानी सिर्फ 2-3 सिंचाई के लिये ही उपलब्ध हो, वहां बोने का उपयुक्त समय 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है। सिंचित गेहूं बोने का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा है। बोनी में 30 नवम्बर से अधिक देरी नहीं होना चाहिए। यदि किसी कारण से बोनी विलंब से करनी हो तब देर से बोने वाली किस्मों की बोनी दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक हो जाना चाहिये। देर से बोयी गई फसल को पकने से पहले ही सूखी और गर्म हवा का सामना करना पड़ जाता है जिससे दाने सिकुड़ जाते है तथा उपज कम हो जाती है।बीज दर एवं पौध अंतरणचुनी हुई किस्म के बड़े-बड़े साफ, स्वस्थ्य और विकार रहित दाने, जो किसी उत्तम फसल से प्राप्त कर सुरंक्षित स्थान पर रखे गये हो, उत्तम बीज होते है । बीज दर भूमि मे नमी की मात्रा, बोने की विधि तथा किस्म पर निर्भर करती है। बोने गेहूं की खेती के लिए बीज की मात्रा देशी गेहूं से अधिक होती है। गेहूं के लिए 100-120 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा देशी गेहूं के लिए 70-90 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोते हैं। असिंचित गेहूं के लिए बीज की मात्रा 100 किलो प्रति हेक्टेयर व कतारों के बीच की दूरी 22-23 से. मी. होनी चाहिये। समय पर बोये जाने वाले सिंचित गेहूं मे बीज दरे 100-125 किलो प्रति हेक्टेयर व कतारों की दूरी 20-22.5 से. मी. रखनी चाहिए। देर वाली सिंचित गेहूं की बोआई के लिए बीज दर 125-150 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पंक्तियों के मध्य 15-18 से. मी. का अन्तरण रखना उचित रहता है।बीज को रात भर पानी में भिंगोकर बोना लाभप्रद है। भारी चिकनी मिट्टी में नमी की मात्रा आवश्यकता से कम या अधिक रहने तथा बोआई में बहुत देर हो जाने पर अधिक बीज बोना चाहिए । मिट्टी के कम उपजाऊ होने या फसल पर रोग या कीटों से आक्रमण की सम्भावना होने पर भी बीज अधिक मात्रा में डाले जाते हैं। प्रयोगों में यह देखा गया है कि पूर्व-पश्चिम व उत्तर- दक्षिण क्रास बोआई करने पर गेहूं की अधिक उपज प्राप्त होती है। इस विधि में कुल बीज व खाद की मात्रा, आधा-आधा करके उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम दिशा में बोआई की जाती है। इस प्रकार पौधे सूर्य की रोशनी का उचित उपयोग प्रकाश संश्लेषण मे कर लेते हैं, जिससे उपज अधिक मिलती है। गेहूं में प्रति वर्गमीटर 400-500 बालीयुक्त पौधे होने से अच्छी उपज प्राप्त होती है।बीज बोने की गहराईबौने गेहूं की बोआई में गहराई का विशेष महत्व होता है, क्योंकि बौनी किस्मों में प्राकुंरचोल की लम्बाई 4-5 से. मी. होती है। अत: यदि इन्हे गहरा बो दिया जाता है तो अंकुरण बहुत कम होता है। गेहूं की बौनी किस्मों को 3-5 से.मी. रखते हैं। देशी (लम्बी) किस्मों में प्रांकुरचोल की लम्बाई लगभग 7 सेमी. होती है । अत: इनकी बोने की गहराई 5-7 सेमी. रखनी चाहिये।बोआई की विधियांआमतौर पर गेहूं की बोआई चार विधियों से (छिटककर, कूड़ में चोगे या सीड ड्रिल से तथा डिबलिंग) से की जाती है। गेहूं बोआई हेतु स्थान विशेष की परिस्थिति अनुसार विधियां प्रयोग में लाई जा सकती है।1. छिटकवां विधि : इस विधि में बीज को हाथ से समान रूप से खेत में छिटक दिया जाता है और पाटा अथवा देशी हल चलाकर बीज को मिट्टी से ढक दिया जाता है। इस विधि से गेहूं उन स्थानों पर बोया जाता है, जहां अधिक वर्षा होने या मिट्टी भारी दोमट होने से नमी अपेक्षाकृत अधिक समय तक बनी रहती है । इस विधि से बोये गये गेहूं का अंकुरण ठीक से नहीं हो पाता, पौध अव्यवस्थित ढंग से उगते हैं, बीज अधिक मात्रा में लगता है और पौध यप-तप उगने के कारण निराई-गुड़ाई में असुविधा होती है परन्तु अति सरल विधि होने के कारण कृषक इसे अधिक अपनाते है ।2. हल के पीछे कूड़ में बोआई : गेहूं बोने की यह सबसे अधिक प्रचलित विधि है । हल के पीछे कूंड़ में बीज गिराकर दो विधियों से बुआई की जाती है -(अ) हल के पीछे हाथ से बोआई (केरा विधि): इसका प्रयोग उन स्थानों पर किया जाता है जहां बुआई अधिक रकबे में की जाती है तथा खेत में पर्याप्त नमी रहती हो। इस विधि में देशी हल के पीछे बनी कूड़ो में जब एक व्यक्ति खाद और बीज मिलाकर हाथ से बोता चलता है तो इस विधि को केरा विधि कहते हैं। हल के घूमकर दूसरी बार आने पर पहले बने कूंड़ कुछ स्वंय ही ढंक जाते हैं। सम्पूर्ण खेत बो जाने के बाद पाटा चलाते हैं, जिससे बीज भी ढंक जाता है और खेत भी चोरस हो जाता है।(ब) देशी हल के पीछे नाई बांधकर बोआई (पोरा विधि): इस विधि का प्रयोग असिंचित क्षेत्रों या नमी की कमी वाले क्षेत्रों में किया जाता है। इसमें नाई, बास या चैंगा हल के पीछे बंधा रहता है। एक ही आदमी हल चलाता है तथा दूसरा बीज डालने का कार्य करता है। इसमें उचित दूरी पर देशी हल द्वारा 5- 8 सेमी. गहरे कूड़ में बीज पड़ता है । इस विधि मे बीज समान गहराई पर पड़ते है जिससे उनका समुचित अंकुरण होता है। कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए देशी हल के स्थान पर कल्टीवेटर का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि कल्टीवेटर से एक बार में तीन कूड़ बनते है।3. सीड ड्रिल द्वारा बोआई: यह पोरा विधि का एक सुधरा रूप है। विस्तृत क्षेत्र में बोआई करने के लिये यह आसान तथा सस्ता ढंग है। इसमे बोआई बैल चलित या ट्रेक्टर चलित बीज वपित्र द्वारा की जाती है। इस मशीन में पौध अन्तरण व बीज दर का समायोजन इच्छानुसार किया जा सकता है। इस विधि से बीज भी कम लगता है और बोआई निश्चित दूरी तथा गहराई पर सम रूप से हो पाती है जिससे अंकुरण अच्छा होता है। इस विधि से बोने में समय कम लगता है।4. डिबलर द्वारा बोआई: इस विधि में प्रत्येक बीज को मिट्टी में छेदकर निर्दिष्ट स्थान पर मनचाही गहराई पर बोते है । इसमें एक लकड़ी का फ्रंम को खेत में रखकर दबाया जाता है तो खूटियों से भूमि मे छेद हो जाते हैं जिनमें 1-2 बीज प्रति छेद की दर से डालते हैं। इस विधि से बीज की मात्रा काफी कम (25-30 किग्रा. प्रति हेक्टर) लगती है परन्तु समय व श्रम अधिक लगने के कारण उत्पादन लागत बढ़ जाती है।5. फर्ब विधि : इस विधि में सिंचाई जल बचाने के उद्देश्य से ऊंची उठी हुई क्यारियां तथा नालियां बनाई जाती हैं। क्यारियो की चोड़ाई इतनी रखी जाती है कि उस पर 2-3 कूड़े आसानी से बोई जा सके तथा नालियां सिंचाई के लिए प्रयोग में ली जाती है। इस प्रकार लगभग आधे सिंचाई जल की बचत हो जाती है। इस विधि में सामान्य प्रचलित विधि की तुलना में उपज अधिक प्राप्त होती है। इसमें ट्रैक्टर चालित यंप से बुवाई की जाती है। यह यंप क्यारियां बनाने, नाली बनाने तथा क्यारी पर कूंड़ो में एक साथ बुवाई करने का कार्य करता है।6.शून्य कर्षण सीड ड्रिल विधि: धान की कटाई के उपरांत किसानों को रबी की फसल गेहूं आदि के लिए खेत तैयार करने पड़ते हैं। गेहूं के लिए किसानों को अमूमन 5-7 जुताइयां करनी पड़ती हैं। ज्यादा जुताइयों की वजह से किसान समय पर गेहूं की बङ्क्षआई नहीं कर पाते, जिसका सीधा असर गेहूं के उत्पादन पर पड़ता है। इसके अलावा इसमें लागत भी अधिक आती है। ऐसे में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। शून्य कर्षण से किसानों का समय तो बचता ही है, साथ ही लागत भी कम आती है, जिससे किसानों का लाभ काफी बढ़ जाता है। इस विधि के माध्यम से खेत की जुताई और बिजाई दोनों ही काम एक साथ हो जाते हैं। इससे बीज भी कम लगता है और पैदावार करीब 15 प्रतिशत बढ़ जाती है। खेत की तैयारी में लगने वाले श्रम व सिंचाई के रूप में भी करीब 15 प्रतिशत बचत होती है। इसके अलावा खरपतवार प्रकोप भी कम होता है, जिससे खरपतवारनाशकों का खर्च भी कम हो जाता है।
भूमि का चयन
गेहूं सभी प्रकार की कृषि योग्य भूमियों में पैदा हो सकता है परन्तु दोमट से भारी दोमट, जलोढ़ मृदाओं में गेहूं की खेती सफलता पूर्वक की जाती है। जल निकास की सुविधा होने पर मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में भी इसकी अच्छी फसल ली जा सकती है। कपास की काली मृदा में गेहूं की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है। भूमि का पी. एच. मान 5 से 7.5 के बीच में होना फसल के लिए उपयुक्त रहता है क्योंकि अधिक क्षारीय या अम्लीय भूमि गेहूं के लिए अनुपयुक्त होती है।
खेत की तैयारी
अच्छे अंकुरण के लिये एक बेहतर भुरभुरी मिट्टी की आवश्यकता होती है। समय पर जुताई खेत में नमी संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। वास्तव में खेत की तैयारी करते समय हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि बोआई के समय खेत खरपतवार मुक्त हो, भूमि में पर्याप्त नमी हो तथा मिट्टी इतनी भुरभुरी हो जाये ताकि बोआई आसानी से उचित गहराई तथा समान दूरी पर की जा सके। खरीफ की फसल काटने के बाद खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल (एमबी प्लोऊ ) से करनी चाहिए जिससे खरीफ फसल के अवशेष और खरपतवार मिट्टी में दबकर सड़ जायें। इसके बाद आवश्यकतानुसार 2-3 जुताइयां देशी हल-बखर या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा देकर खेत समतल कर लेना चाहिए।
उन्नत किस्में
फसल उत्पादन में उन्नत किस्मों के बीज का महत्वपूर्ण स्थान है। गेहूं की किस्मों का चुनाव जलवायु, बोने का समय और क्षेत्र के आधार पर करना चाहिए।
बीजोपचार
बुआई के लिए जो बीज इस्तेमाल किया जाता है वह रोग मुक्त, प्रमाणित तथा क्षेत्र विशेष के लिए अनुशंषित उन्नत किस्म का होना चाहिए। अलावा रोगों की रोकथाम के लिए ट्राइकोडरमा की 4 ग्राम मात्रा 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के साथ प्रति किग्रा बीज की दर से बीज शोधन किया जा सकता है ।
बोआई का समय
गेंहूं रबी की फसल है जिसे शीतकालीन मौसम में उगाया जाता है। भारत के विभिन्न भागो में गेहूँ का जीवन काल भिन्न-भिन्न रहता है। सामान्य तौर पर गेहूं की बोआई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है तथा फसल की कटाई फरवरी से मई तक की जाती है । जिन किस्मों की अवधि 135-140 दिन है, उनको नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में व जो किस्में पकने में 120 दिन का समय लेती है, उन्हे 15-30 नवम्बर तक बोना चाहिए। गेहूं की शीघ्र बुवाई करने पर बालियां पहले निकल आती हैं तथा उत्पादन कम होता है जबकि तापक्रम पर बुवाई करने पर अंकुरण देर से होता है।
प्रयोगों से यह देखा गया है कि लगभग 15 नवम्बर के आसपास गेहूं बोये जाने पर अधिकतर बौनी किस्में अधिकतम उपज देती है। अक्टूबर के उत्तराद्र्ध में बोयी गई लंबी किस्मों से भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। असिंचित अवस्था में बोने का उपयुक्त समय वर्षा ऋतु समाप्त होते ही मध्य अक्टूबर के लगभग है। अद्र्धसिंचित अवस्था मे जहां पानी सिर्फ 2-3 सिंचाई के लिये ही उपलब्ध हो, वहां बोने का उपयुक्त समय 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है। सिंचित गेहूं बोने का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा है। बोनी में 30 नवम्बर से अधिक देरी नहीं होना चाहिए। यदि किसी कारण से बोनी विलंब से करनी हो तब देर से बोने वाली किस्मों की बोनी दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक हो जाना चाहिये। देर से बोयी गई फसल को पकने से पहले ही सूखी और गर्म हवा का सामना करना पड़ जाता है जिससे दाने सिकुड़ जाते है तथा उपज कम हो जाती है।
बीज दर एवं पौध अंतरण
चुनी हुई किस्म के बड़े-बड़े साफ, स्वस्थ्य और विकार रहित दाने, जो किसी उत्तम फसल से प्राप्त कर सुरंक्षित स्थान पर रखे गये हो, उत्तम बीज होते है । बीज दर भूमि मे नमी की मात्रा, बोने की विधि तथा किस्म पर निर्भर करती है। बोने गेहूं की खेती के लिए बीज की मात्रा देशी गेहूं से अधिक होती है। गेहूं के लिए 100-120 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा देशी गेहूं के लिए 70-90 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोते हैं। असिंचित गेहूं के लिए बीज की मात्रा 100 किलो प्रति हेक्टेयर व कतारों के बीच की दूरी 22-23 से. मी. होनी चाहिये। समय पर बोये जाने वाले सिंचित गेहूं मे बीज दरे 100-125 किलो प्रति हेक्टेयर व कतारों की दूरी 20-22.5 से. मी. रखनी चाहिए। देर वाली सिंचित गेहूं की बोआई के लिए बीज दर 125-150 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पंक्तियों के मध्य 15-18 से. मी. का अन्तरण रखना उचित रहता है।
बीज को रात भर पानी में भिंगोकर बोना लाभप्रद है। भारी चिकनी मिट्टी में नमी की मात्रा आवश्यकता से कम या अधिक रहने तथा बोआई में बहुत देर हो जाने पर अधिक बीज बोना चाहिए । मिट्टी के कम उपजाऊ होने या फसल पर रोग या कीटों से आक्रमण की सम्भावना होने पर भी बीज अधिक मात्रा में डाले जाते हैं। प्रयोगों में यह देखा गया है कि पूर्व-पश्चिम व उत्तर- दक्षिण क्रास बोआई करने पर गेहूं की अधिक उपज प्राप्त होती है। इस विधि में कुल बीज व खाद की मात्रा, आधा-आधा करके उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम दिशा में बोआई की जाती है। इस प्रकार पौधे सूर्य की रोशनी का उचित उपयोग प्रकाश संश्लेषण मे कर लेते हैं, जिससे उपज अधिक मिलती है। गेहूं में प्रति वर्गमीटर 400-500 बालीयुक्त पौधे होने से अच्छी उपज प्राप्त होती है।
बीज बोने की गहराई
बौने गेहूं की बोआई में गहराई का विशेष महत्व होता है, क्योंकि बौनी किस्मों में प्राकुंरचोल की लम्बाई 4-5 से. मी. होती है। अत: यदि इन्हे गहरा बो दिया जाता है तो अंकुरण बहुत कम होता है। गेहूं की बौनी किस्मों को 3-5 से.मी. रखते हैं। देशी (लम्बी) किस्मों में प्रांकुरचोल की लम्बाई लगभग 7 सेमी. होती है । अत: इनकी बोने की गहराई 5-7 सेमी. रखनी चाहिये।
बोआई की विधियां
आमतौर पर गेहूं की बोआई चार विधियों से (छिटककर, कूड़ में चोगे या सीड ड्रिल से तथा डिबलिंग) से की जाती है। गेहूं बोआई हेतु स्थान विशेष की परिस्थिति अनुसार विधियां प्रयोग में लाई जा सकती है।
1. छिटकवां विधि : इस विधि में बीज को हाथ से समान रूप से खेत में छिटक दिया जाता है और पाटा अथवा देशी हल चलाकर बीज को मिट्टी से ढक दिया जाता है। इस विधि से गेहूं उन स्थानों पर बोया जाता है, जहां अधिक वर्षा होने या मिट्टी भारी दोमट होने से नमी अपेक्षाकृत अधिक समय तक बनी रहती है । इस विधि से बोये गये गेहूं का अंकुरण ठीक से नहीं हो पाता, पौध अव्यवस्थित ढंग से उगते हैं, बीज अधिक मात्रा में लगता है और पौध यप-तप उगने के कारण निराई-गुड़ाई में असुविधा होती है परन्तु अति सरल विधि होने के कारण कृषक इसे अधिक अपनाते है ।
2. हल के पीछे कूड़ में बोआई : गेहूं बोने की यह सबसे अधिक प्रचलित विधि है । हल के पीछे कूंड़ में बीज गिराकर दो विधियों से बुआई की जाती है -
(अ) हल के पीछे हाथ से बोआई (केरा विधि): इसका प्रयोग उन स्थानों पर किया जाता है जहां बुआई अधिक रकबे में की जाती है तथा खेत में पर्याप्त नमी रहती हो। इस विधि में देशी हल के पीछे बनी कूड़ो में जब एक व्यक्ति खाद और बीज मिलाकर हाथ से बोता चलता है तो इस विधि को केरा विधि कहते हैं। हल के घूमकर दूसरी बार आने पर पहले बने कूंड़ कुछ स्वंय ही ढंक जाते हैं। सम्पूर्ण खेत बो जाने के बाद पाटा चलाते हैं, जिससे बीज भी ढंक जाता है और खेत भी चोरस हो जाता है।
(ब) देशी हल के पीछे नाई बांधकर बोआई (पोरा विधि): इस विधि का प्रयोग असिंचित क्षेत्रों या नमी की कमी वाले क्षेत्रों में किया जाता है। इसमें नाई, बास या चैंगा हल के पीछे बंधा रहता है। एक ही आदमी हल चलाता है तथा दूसरा बीज डालने का कार्य करता है। इसमें उचित दूरी पर देशी हल द्वारा 5- 8 सेमी. गहरे कूड़ में बीज पड़ता है । इस विधि मे बीज समान गहराई पर पड़ते है जिससे उनका समुचित अंकुरण होता है। कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए देशी हल के स्थान पर कल्टीवेटर का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि कल्टीवेटर से एक बार में तीन कूड़ बनते है।
3. सीड ड्रिल द्वारा बोआई: यह पोरा विधि का एक सुधरा रूप है। विस्तृत क्षेत्र में बोआई करने के लिये यह आसान तथा सस्ता ढंग है। इसमे बोआई बैल चलित या ट्रेक्टर चलित बीज वपित्र द्वारा की जाती है। इस मशीन में पौध अन्तरण व बीज दर का समायोजन इच्छानुसार किया जा सकता है। इस विधि से बीज भी कम लगता है और बोआई निश्चित दूरी तथा गहराई पर सम रूप से हो पाती है जिससे अंकुरण अच्छा होता है। इस विधि से बोने में समय कम लगता है।
4. डिबलर द्वारा बोआई: इस विधि में प्रत्येक बीज को मिट्टी में छेदकर निर्दिष्ट स्थान पर मनचाही गहराई पर बोते है । इसमें एक लकड़ी का फ्रंम को खेत में रखकर दबाया जाता है तो खूटियों से भूमि मे छेद हो जाते हैं जिनमें 1-2 बीज प्रति छेद की दर से डालते हैं। इस विधि से बीज की मात्रा काफी कम (25-30 किग्रा. प्रति हेक्टर) लगती है परन्तु समय व श्रम अधिक लगने के कारण उत्पादन लागत बढ़ जाती है।
5. फर्ब विधि : इस विधि में सिंचाई जल बचाने के उद्देश्य से ऊंची उठी हुई क्यारियां तथा नालियां बनाई जाती हैं। क्यारियो की चोड़ाई इतनी रखी जाती है कि उस पर 2-3 कूड़े आसानी से बोई जा सके तथा नालियां सिंचाई के लिए प्रयोग में ली जाती है। इस प्रकार लगभग आधे सिंचाई जल की बचत हो जाती है। इस विधि में सामान्य प्रचलित विधि की तुलना में उपज अधिक प्राप्त होती है। इसमें ट्रैक्टर चालित यंप से बुवाई की जाती है। यह यंप क्यारियां बनाने, नाली बनाने तथा क्यारी पर कूंड़ो में एक साथ बुवाई करने का कार्य करता है।
6.शून्य कर्षण सीड ड्रिल विधि: धान की कटाई के उपरांत किसानों को रबी की फसल गेहूं आदि के लिए खेत तैयार करने पड़ते हैं। गेहूं के लिए किसानों को अमूमन 5-7 जुताइयां करनी पड़ती हैं। ज्यादा जुताइयों की वजह से किसान समय पर गेहूं की बङ्क्षआई नहीं कर पाते, जिसका सीधा असर गेहूं के उत्पादन पर पड़ता है। इसके अलावा इसमें लागत भी अधिक आती है। ऐसे में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। शून्य कर्षण से किसानों का समय तो बचता ही है, साथ ही लागत भी कम आती है, जिससे किसानों का लाभ काफी बढ़ जाता है। इस विधि के माध्यम से खेत की जुताई और बिजाई दोनों ही काम एक साथ हो जाते हैं। इससे बीज भी कम लगता है और पैदावार करीब 15 प्रतिशत बढ़ जाती है। खेत की तैयारी में लगने वाले श्रम व सिंचाई के रूप में भी करीब 15 प्रतिशत बचत होती है। इसके अलावा खरपतवार प्रकोप भी कम होता है, जिससे खरपतवारनाशकों का खर्च भी कम हो जाता है।
जय श्री राम
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